क़ुदरत के हुस्न का अनमोल ख़ज़ाना -ओरछा
एक सप्ताह पहले ही ओरछा गया था। इस धार्मिक -ऐतिहासिक -प्राकृतिक तीर्थ ने इस बार मन मोह लिया। पहले अक्सर रामराजा सरकार के दर्शन करने जाया करता था। एक श्रद्धालु की तरह। शायद मेरे अवचेतन में यह कहानी गहरे बैठी हुई है कि रामराजा तो बुंदेलखंड के ओरछा में विराजे हैं ,बेतवा नदी के तट पर। ओरछा में राम जी के दर्शन तो मैंने किशोरावस्था में क़रीब पैंतालीस – छियालीस बरस पहले ही कर लिए थे। इस अदभुत तीर्थ में आते ही ऐसा लगता है, मानों किसी अन्य लोक में आ गए हैं।आपको याद दिला दूँ कि ओरछा की रानी गणेश कुँअरि राम की बड़ी भक्त थीं। वे अयोध्या के मुख्य राम आवास से श्रीराम,सीता और लक्ष्मण की प्रतिमाएँ एक क़ाफ़िले की शक़्ल में लाई थीं। यही प्रतिमाएँ राजा मधुकरशाह की रानी कुँअरि गणेश अवधपुरी से ओरछा लाईंl इन प्रतिमाओं को उन्होंने अपने रानी महल में प्रतिष्ठित कराया था।तबसे यही रानी महल भगवान् राम का आज तक मंदिर बना हुआ है।
मेरे अवचेतन में ओरछा नाम लेते ही एक फ़िल्म के अनेक दृश्य उभरते हैं। सबसे पहला लाखों श्रद्धालुओं का बेतवा में डुबकी लगाते हुए दृश्य उभरता है ।फिर कई किलोमीटर तक कतारों में लोकगीत गाते ,राम की महिमा गाते महिलाओं और पुरुषों के झुंड दिखाई देते हैं। भगवान राम को सशस्त्र जवानों की टुकड़ी प्रतिदिन नियम से सलामी देती नज़र आती है।जिस तरह उज्जैन के राजा महाकाल हैं, उसी तरह श्री राम ओरछा के मालिक हैं और इसी कारण वे करोड़ों दिलों में धड़कते हैं। इलाक़े के आसपास के पचास से अधिक ज़िलों में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है कि शादी तय होते ही पहला निमंत्रण-पत्र ओरछा में भगवान राम को भेजा जाता है। लोग तो कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर निमंत्रण पत्र पर हल्दी चावल छिड़ककर राम के चरणों में उसे रख देते हैं। उसके बाद ही अन्न जल ग्रहण करते हैं। जो लोग ख़ुद नहीं पहुंच पाते ,वे बाकायदा डाक से निमंत्रण पत्र भेजते हैं। उसके बाद ही अन्य कार्डों को भेजने का सिलसिला शुरू होता है। हमारे यहां तो विवाह के लिए मुहूर्त निकलवाने की परंपरा है। शुभ मुहूर्त नहीं निकले तो शादी ही टल जाती है,जब तक कि अच्छा मुहूर्त नहीं निकल आता। लेकिन ओरछा में अगर आप शादी करने जाते हैं तो किसी मुहूर्त की ज़रूरत ही नहीं होती। ओरछा का एक-एक पल शुभ मुहूर्त है। इसलिए दूर दूर से लोग बसों में भरकर, रेल से या अपनी गाड़ियों में आते हैं और ठाठ से ब्याह करते हैं। ओरछा ब्याह रचाने का सबसे शानदार स्थल है। क्या किसी अन्य आराध्य के प्रति जन मानस में इतनी गहरी आस्था महसूस होती है ?
लेकिन मेरी सप्ताह भर पहले की यात्रा केवल एक श्रद्धालु के तौर पर ही नहीं थी। इस बार मैं एक सैलानी या यायावर के तौर पर ओरछा का आनंद लेना चाहता था। झांसी रेलवे स्टेशन पर उतरते ही एक मित्र की कार मुझे ओरछा ले जाने के लिए तैयार थी। बीस से पच्चीस मिनट के भीतर हम ओरछा के भीतर थे। एक छोटी सी पहाड़ी पर घने जंगलों और कल-कल बहती बेतवा के बीच मेरे सस्ते विश्रामालय का कमरा सुरक्षित था। मैं दंग था। देश भर घूमा हूं। चप्पे-चप्पे की ख़ाक छानी है ।शायद ही मुल्क का कोई हिस्सा बचा हो। हिमालय की वादियां हों या ब्रह्मपुत्र के विराट धारे,समंदर के किनारे हों या रेगिस्तान के नज़ारे। घने पेड़ों से भरे जंगल हों अथवा वन्य जीवों की बहार। कह सकता हूं कि इस बार ओरछा में जिस अलौकिक अनुभूति से गुज़रा, किसी अन्य जगह वैसा अहसास नहीं हुआ।
सुबह सुबह मोरों की आवाज़ ,चिड़ियों की चहचहाहट और पत्थरों से टकराकर बेतवा की लहरों के इठलाने की धुन से नींद जल्दी खुल गई। बाहर निकला तो सफ़ेद कोहरे की चादर बिछी हुई थी। कानों में मफ़लर लपेटकर कड़कड़ाती सुबह में सैर को निकल पड़ा। पत्थरों वाले रपट वाले पुल को पार करते हुए राष्ट्रीय अभयारण्य में जा पहुँचा।कोहरा छट गया था।नदी की धार के पार पौ फट रही थी। सूरज की किरणें पेड़ों के पत्तों के बीच से छन-छन कर आने लगी थीं। तभी
सरसराहट हुई और हिरणों का एक झुण्ड कुलांचें भरता सामने से निकल गया। यह झुण्ड चट्टानों के बीच धीरे-धीरे कुछ नखरा दिखाते बहते पानी के पास पहुँचा। चौकन्नी आँखों से इधर उधर देखा और चप-चप करता पानी पीने लगा। मैं पेड़ों के बीच एक पगडण्डी पर था।एक फर्लांग भी नहीं गया कि सियारों का एक झुण्ड चपलता से निकल गया। बचपन में हम गाँव में रहते थे। सियारों को बुंदेली में लिडैया कहा जाता था। एक सेकंड की गति कितनी तेज़ होती है। सियारों की एक झलक ने मुझे पचपन साल पहले पहुँचा दिया था। मैंने ऊपर वाले को धन्यवाद देने के लिए सिर उठाया तो दो नीलकंठ एक डाल पर। फिर बचपन में जा पहुंचा। दशहरे के दिन जल्दी जगाती थीं। कहती थीं ,’ आज दशहरा है। आज सुबह सुबह नीलकंठ देखना शुभ होता है।अपनी दादी की बात मानते हुए सब बच्चे नीलकंठ देखने निकल पड़ते और तभी लौटते ,जब नीलकंठ के दर्शन हो जाते चाहे कितना ही दिन चढ़ आए। हम गाते थे – नीलकंठ ! तुम नीले रहियो। हमाई ख़बर भगवान से कहियो…..
दिन वाकई चढ़ आया था। सात -साढ़े सात का समय रहा होगा। मोबाईल तो मैं कमरे में ही छोड़ गया था। क़ुदरत को पूरी तरह पीना चाहता था। लौटते हुए एक नीम से दातून तोड़ कर दाँत साफ़ करते ,यादों में उतराते उन्ही पत्थरों के पास ताज़ा बहता पानी पीने की इच्छा से गया ,जहाँ थोड़ी देर पहले हिरण प्यास बुझा रहे थे।एक पत्थर पर बैठकर ठन्डे पानी में पैर डाल कर बैठा रहा। छोटी-छोटी मछलियाँ मेरे पैर को छू कर निकल जातीं। दूर दूर तक सिर्फ़ मैं ,नदी ,चट्टानें ,बड़े-बड़े पेड़ और कुछ जंगली जानवर। सब कुछ कितना सुहाना था। दिल्ली के ज़हरीले गैस चैंबर से दूर प्रकृति की गोद मुझे दुलार रही थी।पास में सरसराहट से विचारों की तन्द्रा टूटी। चौंक कर देखा ,बाजू से एक भूरा अज़गर भी नदी किनारे एक पत्थर के इर्द गिर्द लिपट रहा था। अफ़सोस ! कोई कैमरा न था। उससे नज़र हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। थोड़ी देर बाद आगे बढ़ा तो एक जंगली सुअर दाँत दिखाकर चिढ़ाते भाग गया। अपनी रिसॉर्ट के पास पहुंचा तो किनारे पत्थरों को चूल्हा बनाए एक गाँव वाला चाय बना रहा था। हमने भी पाँच रूपए में गिलास भर स्वादिष्ट अदरक वाली चाय पी।यक़ीन मानिए। दिल्ली के ताज़ या इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर की चाय से कई गुना बेहतर। रिसॉर्ट के अपने कमरे के बाहर भी नदी बेतवा का नज़ारा। एक चट्टान पर बैठकर वेटर से एक और चाय तथा गरमा गरम समौसा खाया। फिर कपड़े निकालकर ठंडे पानी में नहाने उतर गया। उस खुशनुमा सर्दी में भी नदी से बाहर निकलने की इच्छा नहीं हो रही थी। मुझे बेशर्मी से नहाते देख आसपास कुछ और देसी-विदेशी सैलानी भी स्नान के लिए आ पहुँचे। मैं बाहर निकल आया।
रामराजा के दर्शन के बाद मैं लाला हरदौल के निवास पर जा पहुँचा। लाला हरदौल बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में देवता की तरह पूजे जाते हैं।लेकिन उनकी
गाथा दुःख भरी है। मुझे याद आया। आकाशवाणी छतरपुर में जब उद्घोषक था तो अक्सर हम लोगों को टेपरिकॉर्डर लेकर भेज दिया जाता था। रेडियो रिपोर्ट बनाने के लिए। मैं एक रिकॉर्डिंग के लिए सहयोगियों के साथ गया। वहाँ एक मेले में डफली पर ओमप्रकाश अमर नाम के बेजोड़ लोक गायक के मुंह से हरदौल गाथा सुनी। हम भाव विह्वल हो गए। सामने दस हज़ार से अधिक लोग इन्ही हरदौल की कहानी सुनकर फूट-फूट कर रो रहे थे। हमारे भी आँसू भर आए थे।
हरदौल के बड़े भाई जुझारसिंह ओरछा के राजा थे ,लेकिन उनकी तैनाती दिल्ली दरबार में थी।उन्होंने अपने छोटे भाई हरदौल को अपना प्रतिनिधि बनाकर ओरछा का राज सौंप दिया। लेकिन जुझार सिंह कान का कच्चा था। उसके चापलूसों ने कहा कि हरदौल और जुझारसिंह की बीवी के बीच प्रेम संबंध हैं। नाराज़ जुझारसिंह ने अपनी पत्नी से कहा कि अगर वह पतिव्रता है तो हरदौल के खाने में ज़हर मिलाकर उसे मार डाले। हरदौल भाभी को माँ की तरह मानते थे।ज़हर देते समय रानी फ़फ़क उठी। चकित हरदौल ने कारण पूछा तो वह छिपा न सकी। हरदौल ने कहा , ‘ माँ ! बस इतनी सी बात। और हरदौल ने ज़हर पी लिया। हरदौल ने प्राण त्यागे तो शोक में सैकड़ों लोगों ने सामूहिक आत्मदाह किया। ओरछा में कई दिन तक चूल्हे नहीं जले। हरदौल की बहन कुंजावती का ब्याह दतिया में हुआ था। उसने जुझारसिंह से नाता तोड़ लिया। बरसों बाद जब उसकी बेटी का ब्याह हुआ तो मंडप के नीचे रिवाज़ के मुताबिक़ मामा को भात लेकर ( चीकट की रस्म ) जाना पड़ता है। कुंजावती जुझारसिंह से नाता तोड़ चुकी थी और हरदौल की मौत हो चुकी थी। बहन ने चीत्कार करते हुए हरदौल को पुकारा। मान्यता है कि हरदौल की आत्मा ने भात की रस्म अदा की। तबसे लेकर आज तक बुंदेलखंड की हर माँ हरदौल को अपना भाई मानती है और बेटी के ब्याह में पहला कार्ड श्री राम को देने के बाद दूसरा निमंत्रण पत्र हरदौल को देने की परंपरा है। हरदौल के वस्त्र,महल,उनका आवास आज भी जस का तस रखा हुआ है।एक पर्यटक को नैतिक मूल्यों की गाथा सुनाने वाला ऐसा बेजोड़ तीर्थ देश विदेश में कहाँ मिलेगा
ओरछा में गंगा – जमुनी तहजीब का अदभुत समन्वय है। हरदौल जू के घर से मैं जहाँगीर महल जा पहुँचा था।तीन मंज़िल का बेजोड़ महल।हिन्दुस्तान का हिन्दू और मुस्लिम स्थापत्य शैली का मिला जुला पहला महल।पुरातात्विक विशेषज्ञों के लिए ही नहीं आम सैलानी के लिए एक अनोखी इमारत।आप जाएँ तो ठगे से रह जाएँगे।मैं गया तो आधा दिन कैसे बीत गया -पता ही नहीं चला। होश तो तब आया,जब एक कारिंदे ने आकर सूचना दी कि महल बंद होने का वक़्त हो चुका है और मैं बाहर चला जाऊँ।मैं तो आँखों से पी रहा था।अधूरी प्यास लिए रिसॉर्ट लौट आया।प्यास तो अधूरी थी,लेकिन भूख़ भी जबरदस्त लग आई थी।रिसॉर्ट का मीनू देखा तो वेटर से कहा,’ भाई ! कुछ बुंदेली व्यंजन क्यों नहीं खिलाते।उसने कहा,’ चलिए।मंदिर के पास देसी घी की पूड़ी और आलू की सब्ज़ी खिलाता हूँ।वह लेकर गया। वाह।क्या बात है।पंद्रह -सत्रह पूड़ियाँ खा गया और पेट भरने का नाम ही नहीं ले रहा था।खाने से तृप्त एकदम दिव्य मैं रात रिसॉर्ट आकर सो गया।गहरी नींद में भी ओरछा दिखता रहा।हिन्दुस्तान में ऐसा
दूसरा कोई पर्यटक स्थल नहीं,जो धार्मिक तीर्थ हो,घने जंगल से घिरा हो,रिवरराफ्टिंग का आनंद हो,वन्यजीवों का लुत्फ़ हो और सबसे बड़ी बात साफ़ सुथरी हवा।हम दुनिया भर के पर्यटक स्थान घूमने में लाखों रूपए बहाते हैं और पाँच-दस हज़ार रूपए में धरती के इस अनमोल ख़ज़ाने को नहीं लूटना चाहते।
अगले दिन मुझे लौटना था।अफ़सोस हो रहा था कि इस शानदार विरासत के लिए डेढ़ दिन ही क्यों लेकर आया। कम से कम तीन दिन तो बनते ही हैं। बहरहाल ! नदी और जंगल का आनंद तो पिछले दिन ही ले चुका था। कुछ ऐतिहासिक स्मारकों को देखना बाक़ी था। इसलिए अगले दिन सुबह नाश्ता करके आठ बजे ही निकल पड़ा। सबसे पहले चतुर्भुज मंदिर गया। ताज्जुब होता है कि कोई साढ़े चार सौ साल पहले न तो बिजली थी और न अन्य वैज्ञानिक उपकरण लेकिन इस मंदिर में हवा और रौशनी झकाझक जाती है। हम आज फ़्लैट कल्चर के आदी हो रहे हैं और उनमें सारे दिन घर में बिजली जलाकर रखना पड़ जाता है।अपने पूर्वजों के बनाए इंजीनियरिंग तंत्र को समझना ही नहीं चाहते। सैकड़ों साल पुराने चार मंज़िल के इस स्थापत्य नमूने को देखकर मैं दाँतों तले उँगलियाँ दबा रहा था।पीछे ही लक्ष्मी मंदिर है। इस मंदिर की ख़ास बात यह है कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और गोरी फ़ौज़ के युद्ध के शानदार चित्र आप देख सकते हैं।उनकी शहादत के बाद के चित्र हैं। इसलिए एकदम प्रामाणिक मान सकते हैं।इस मंदिर के समीप ही पालकी महल अगर आपने नहीं देखा तो समझिए ओरछा का सफ़र पूरा नहीं हुआ। जैसे धार ज़िले के मांडू में एक महल जहाज़ के आकार का है ,उसी तरह ओरछा का यह महल पालकी के आकार का है। आज के बच्चों ने तो पालकी ही नहीं देखी होगी। पर हम लोगों ने बचपन में न केवल पालकी देखी ,बल्कि उसमें बैठने का भी मज़ा लिया है।
पालकी महल के बाद मैं राय प्रवीणा के महल में था। राय प्रवीणा याने सौंदर्य की मलिका ,ग़ज़ब की नर्तकी और विलक्षण गायिका। ओरछा के राजा के भाई इंद्रजीत सिंह ने अपनी प्रेमिका रायप्रवीणा के लिए इस महल का निर्माण कराया था। तीन मंज़िल का यह महल एक दर्दनाक दास्ताँ की कहानी कहता है। एक कसक के साथ इस महल से वापस आया। रायप्रवीणा की कहानी फिर कभी। फिलहाल तो बता दूँ कि ओरछा से विदा लेते समय आपने अगर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बहादुर क्रांतिकारी चंद्र शेखर आज़ाद का ओरछा के पास ही सातार नदी के किनारे अँगरेज़ों से छिपने का स्थान नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा। हम सबके लिए यह एक तीर्थ से कम नहीं है। इस आधुनिक तीर्थ के अलावा निकट ही एक साहित्यिक नज़रिए से पावन स्थान कुण्डेश्वर है। यहाँ से आज़ादी से पहले प्रख्यात पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने मधुकर नाम की बेजोड़ पत्रिका निकाली थी। देश के नामी गिरामी लेखक ,पत्रकार ,उपन्यासकार ,कहानीकार इस पत्रिका में छपने को तरसते थे। एक नदी किनारे बसे कुण्डेश्वर में आज दादा बनारसी दास चतुर्वेदी की एक विशालकाय प्रतिमा है। कुण्डेश्वर जाना भी एक आधुनिक तीर्थ से कम नहीं है।
आते समय ट्रेन से झांसी जंक्शन पर उतरा था। लौटने के लिए मैंने ओरछा स्टेशन से नही,बल्कि टीकमगढ़ से ट्रेन पकड़ने का फ़ैसला किया था । नए नवेले इस छोटे से स्टेशन पर ट्रेन में भोपाल के लिए बैठा तो मन भावुक हो गया।ओरछा रास्ते भर याद आता रहा। सलाम ओरछा !