एमपी में फिर लौटेगा गौ-सदनों का वैभव
मध्यप्रदेश गायों एवं गायों की सन्तानों (बछड़े-बछड़ियों, सांड-बैलों) के संरक्षण के लिए सर्वाधिक अनुकूल राज्य है
मध्यप्रदेश गायों एवं गायों की सन्तानों (बछड़े-बछड़ियों, सांड-बैलों) के संरक्षण के लिए सर्वाधिक अनुकूल राज्य है। यहाँ का 951 हजार वर्ग किलो मीटर का जंगल गौ-वंश का आश्रय-स्थल है। सृष्टि के प्रारंभ से ही प्रकृति और मूक-प्राणियों के मध्य एक नैसर्गिक समीकरण बना हुआ है। गायों का भोजन जंगल में और गोबर एवं गौ-मूत्र के रूप में जंगल का आहार गायों के पास। शासन-प्रशासन और आम नागरिकों को मिलकर इस प्राकृतिक समीकरण के आधार पर गौ-वंश के संरक्षण एवं पालन की दिशा में युगानुकूल सम-सामयिक और नवाचार विधि से कार्य करना चाहिये।
जंगलों में थे 10 गौ-सदन
अविभाजित मध्यप्रदेश के जंगलों में वर्ष 1916 से 10 गौ-सदन होते थे। वर्षा काल में लगभग 3 माह गौपालकों-कृषकों का पालित गौ-वंश जंगलों में बने इन्हीं 10 गौ-सदनों में निवास करता था। दीपावली के आसपास इन गौ-सदनों से कृषकों-गौ-पालकों का गौ-वंश सकुशल घर वापस आ जाता था। प्राचीन भारत का यह “किसानों की फसल सुरक्षा एवं गौ-वंश के संरक्षण” का पारम्परिक रोडमेप हुआ करता था। ये गौ-सदन वर्ष 2000 तक व्यवस्थित संचालित होते रहे। गौ-सदनों के पास जंगलों में 7200 एकड़ चरनोई भूमि होती थी। वन विभाग की इस भूमि पर राज्य के पशुपालन विभाग का आधिपत्य रहा।
मध्यप्रदेश का विभाजन होने के बाद छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया और दो गौ-सदन (बिलासपुर और रायपुर के) छत्तीसगढ़ राज्य के हिस्से में चले गये। दुर्भाग्य से मध्यप्रदेश के 8 गौ-सदन अकारण ही भंग कर दिये गये। मध्यप्रदेश में गायों के समक्ष समस्या तब पैदा हुई जब मध्यप्रदेश के वर्ष 2000 और वर्ष 2003 के कालखण्ड के तत्कालीन शासन ने चरनोई भूमि की बंदरबाँट मनुष्यों में कर दी। जंगलों के गौ-सदन के भंग होने एवं नगरों और ग्रामों की चरनोई भूमि का मनुष्यों में आवंटन ने मूक-प्राणियों, गौ-वंश आदि के जीवन को संकटग्रस्त कर दिया।
इधर तत्कालीन केंद्र शासन और राज्य शासन की माँस निर्यात नीति एवं कत्लखानों को धड़ल्ले से लाइसेन्स जारी करने की नीति ने प्रदेश के गौ-वंशीय तथा अन्य कृषिक पशुधन की महती हानि कर डाली। प्रदेश में विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक सामाजिक एवं अन्यान्य संगठनों के सम्मिलित आन्दोलन, अनुष्ठान अभियान और प्रयासों से प्रदेश में पशुवध रोकने के कड़े कानून बने। आयोगों का गठन हुआ। मध्यप्रदेश गौ-पालन एवं पशुधन संवर्धन बोर्ड बना। मालवा क्षेत्र के एक विशाल भू-खण्ड में कामधेनु गौ-अभयारण्य का निर्माण हुआ।
प्रदेश के मध्यभारत, बुंदेलखण्ड, बघेलखण्ड एवं महाकौशल क्षेत्र में भी हमने मालवा क्षेत्र की भाँति अपने प्रयास “सम्भावना” के आधार पर आरम्भ कर दिये हैं। प्रदेश में शासन की संकल्प शक्ति, प्रशासनिक अधिकारियों के सहयोग और सक्रियता से तथा स्वयं सेवी संगठनों एवं संस्थाओं के प्रयत्नों से 627 स्वयं सेवी संगठनों की गौ-शालाएँ और 1265 गौ-शालाएँ मनरेगा के आर्थिक सहयोग से निर्मित “ग्राम पंचायत” स्तर पर क्रियाशील हो गई हैं। एक गौ-वंश वन्य-विहार रीवा के “बसावन मामा” नामक स्थान पर तथा एक गौ-वंश वन्य-विहार जबलपुर जिले की कुण्डम तहसील में “गंगईवीर” जंगल परिक्षेत्र में निर्मित होने जा रहा है। इसी प्रकार जिला सीहोर के “देलावाड़ी” स्थान पर भी गौ-वंश वन्य विहार निर्माण की प्रक्रिया जारी है।
हमें विश्वास है सरकार की नीति, प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान की इच्छा शक्ति तथा मध्यप्रदेश गौ-संवर्धन बोर्ड की तत्परता से प्रदेश में गौ-वंश के संरक्षण एवं संवर्धन का अनुकूल वातावरण निर्मित होकर सकारात्मक और रचनात्मक ठोस परिणाम आगामी एक-दो वर्षों में स्पष्ट रूप से दिखने लगेंगे।