एनर्जी पॉवर्टी की छुट्टी
मध्यप्रदेश का बाचा बना देश का पहला सौर-ऊर्जा आत्मनिर्भर गांव
• अवनीश सोमकुवर
“वर्षों से ऊर्जा की कमी की पीडा झेलते-झेलते आख्रिरकार हम ऊर्जा-सम्पन्न बन गये। हमारा गांव बाचा देश का पहला सौर-ऊर्जा आत्मनिर्भर गांव बन गया है। यह बताते हुए अनिल उइके बेहद उत्साहित हो जाते हैं। वे आदिवासी युवा हैं और आदिवासी बैतूल जिले के बाचा गाँव के सौर-ऊर्जा दूत भी हैं।
बाचा गांव बैतूल जिले के घोड़ाडोंगरी तहसील की खदारा ग्राम पंचायत का एक छोटा सा गाँव है। बाचा गांव सौर ऊर्जा समृद्ध गांव के रूप में देश भर में प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका है। यहां की आबादी 450 है । यह मुख्य रूप से आदिवासी बहुल गाँव है। अधिकतर गोंड परिवार रहते हैं।
“हमारे गांव के सभी 75 घरों में सौर ऊर्जा से चलने वाले उपकरणों का उपयोग हो रहा है। यह बताते हुए खदारा ग्राम पंचायत के पंच शरद सिरसाम कहते हैं कि हमने बाचा को ऊर्जा की जरूरत में पूरी तरह से आत्मनिर्भर गांव बनाने के लिए संकल्प लिया है। आईआईटी बाम्बे और ओएनजीसी ने मिलकर बाचा को तीन साल पहले ही इस काम के लिये चुना था। इतने कम वक्त में ही हम बदलाव की तस्वीर देख रहे हैं।”
धुएं से मुक्ति
सभी 75 घरों में अब सौर-ऊर्जा पैनल लग गये हैं। सबके पास सौर-ऊर्जा भंडारण करने वाली बैटरी, सौर-ऊर्जा संचालित रसोई है। इंडक्शन चूल्हे का उपयोग करते हुए महिलाओं ने खुद को प्रौद्योगिकी के अनुकूल ढाल लिया है। खदारा ग्राम पंचायत की पंच शांतिबाई उइके बताती हैं कि “सालों से हमारे परिवार मिट्टी के चूल्हों का इस्तेमाल कर रहे थे। आग जलाना, आंखों में जलन, घना धुआं और उससे खांसी होना आम बात थी। अब हम इंडक्शन स्टोव का उपयोग करने के आदी हो चुके हैं। बड़ी आसानी से इस पर खाना बना सकते हैं। दूध गर्म करना, चाय बनाना, दाल-चावल, सब्जी बनाना बहुत आसान हो गया है। हालांकि हमारे पास एलपीजी गैस है, लेकिन इसका उपयोग अब कभी-कभार हो रहा है।
श्रीमती राधा कुमरे बताती है कि “पारंपरिक चूल्हा वास्तव में एक तरह से समस्या ही था। मैं अब इंडक्शन स्टोव के साथ सहज हूं। किसी भी समय उपयोग ला सकते है।”
वनधन पर घटता दबाव
वन सुरक्षा समिति के अध्यक्ष हीरालाल उइके कहते हैं – “सूर्य-ऊर्जा के दोहन के प्रभाव को गांव से लगे जंगल पर कम होते जैविक दबाव से स्पष्ट मापा जा सकता है। वन सुरक्षा समिति के प्राथमिक कार्यों का हवाला देते हुए वे बताते हैं कि सभी 12 सदस्य वन संपदा की रक्षा करते है । दिन-रात सतर्क रहते है ताकि कोई भी जंगल को नुकसान न पहुंचाए। हमें अवैध पेड़-कटाई और वन्यजीव शिकार जैसी गतिविधियों के बारे में हर समय सचेत रहना पड़ता है। इससे पहले, महिलाएं ईंधन की लकड़ी के लिए प्राकृतिक रूप से गिरी हुई टहनियों को इकट्ठा करने के लिए नियमित रूप से जंगल जाती थीं। लकड़ी बीनने जंगल जाना रोजाना का काम था। अब यह रुक गया है और हमें काफी राहत मिली है। ”
“मैं इस गांव का सबसे पुराना मूल निवासी हूं। मैंने करीब से देखा है कि चीजें कैसे बदली हैं। परिवार की आजीविका के लिए तीन एकड़ की खेती पर निर्भर करीब 80 साल के शेखलाल कवड़े याद करते हैं कि कैसे बाचा मे कोई सड़क नहीं थी। सफाई नहीं थी। बिजली नहीं थी। आज गांव पूरी तरह से बदल गया है। मैं खुश हूँ कि अपने जीवनकाल में ही बदलाव का आनंद मिल रहा है।”
बाचा गांव की सामूहिक भावना को साझा करते हुए, अनिल उइके का कहना है कि बिजली के बिल कम होने से हर कोई खुश है। कारण यह है कि बिजली की खपत में भारी कमी आई है। सौर ऊर्जा संचालित एलईडी बल्ब के साथ घरों की ऊर्जा आवश्यकताओं को सौर ऊर्जा से आसानी से पूरा किया जा रहा है।
प्रेरणा स्त्रोत “खदारा ग्राम पंचायत के सरपंच राजेंद्र कवड़े बताते है कि बाचा ने आसपास के गांवों को प्रेरित किया है। उनका कहना है कि खदारा और केवलझिर गांव के आसपास के क्षेत्रों में भी रुचि पैदा हुई है। केवलझिर बाचा से सिर्फ 1.5 किमी दूर है, जबकि खदारा 2 किमी है।
“मुझे लगता है कि बाचा ने मुझे जिले में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान और सम्मान दिलाया है। जहां भी जाता हूँ लोग सम्मान देते हैं।”
इसी तरह की भावना शाहपुर गवर्नमेंट कॉलेज के बीएससी अंतिम वर्ष के छात्र अरुण कावड़े की भी है। उनका कालेज बाचा से 15 किलोमीटर दूर है। उनके पिता के पास चार एकड़ खेती की जमीन है। यही उनकी जीविका का सहारा है। वे कहते है कि “हम धीरे-धीरे सौर ऊर्जा पर पूरी तरह निर्भर हो रहे है
क्योंकि ग्रिड द्वारा आपूर्ति की गई बिजली महंगी हो रही है।” दूसरा बड़ा कारण यह है कि यह पर्यावरण के अनुकूल है।
“मुझे गर्व होता है जब मेरे दोस्त मुझसे मेरे घर आने को करते हैं यह देखने कि इंडक्शन चूल्हे के साथ सौर ऊर्जा से चलने वाली रसोई कैसे काम कर रही है। अब तक लगभग सभी दोस्त आ चुके हैं।
बाचा का एक स्थानीय व्यक्ति देवासु सौर पैनलों, इंडक्शन स्टोव, बल्ब कनेक्शन, भंडारण बैटरी और अन्य तकनीकी पहलुओं का ध्यान रखता है। वह पूछता रहता है कोई समस्या तो नही आ रही। छोटी-मोटी शिकायतों पर तुरंत मरम्मत करता है।
सामाजिक व्यवहार में बदलाव”यह सब 2017 में शुरू हुआ जब आईआईटी बॉम्बे ने इस परियोजना के लिए बाचा को चुना। इस बारे में जनपद पंचायत घोड़ाडोंगरी के सदस्य रूमी दल्लू सिंह धुर्वे बताते हैं कि आईआईटी बॉम्बे ने सौर पैनल स्थापित करने में मदद की, जबकि तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) ने इंडक्शन चूल्हे दिए।
बाचा के सामाजिक व्यवहार में बदलाव के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि सकारात्मक परिवर्तन साफ दिखाई दे रहा है। उदाहरण के लिए, ग्रामीण तकनीकी अपनाने की झिझक नही रही। वे सामाजिक समस्याओं से निपटने के लिए वैज्ञानिक नजरिया अपना रहे हैं। युवा और भी अधिक उत्साही हैं और पूछते रहते हैं कि सौर ऊर्जा कैसे जीवन को अधिक आरामदायक कैसे बना सकती है। पर्यावरण को कैसे बचा सकती है। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि बाचा मॉडल अत्यंत व्यवहारिक और आसानी से अपनाने करने योग्य है।
धुर्वे ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मध्यप्रदेश को हर मामले में आत्म-निर्भर राज्य बनाने की सोच सराहना करते है। उनका मानना है कि इस तरह की पहल इस सोच को जमीन पर उतारने में मददगार होगी। अगर बाचा गांव ऊर्जा में आत्मनिर्भरता हासिल कर सकता है, तो दूसरे गांव भी ऐसा कर सकते हैं।