संविधान और संस्कृति की दुहाई देने वाले कहाँ है? -भूपेन्द्र गुप्ता
भोपाल, 28 जनवरी, 2020
नागरिकता संशोधन कानून से भाजपा और उसकी आत्मा आरएसएस ने एक बार फिर साबित कर दिया है अपने राजनैतिक एजेंडे के लिए वे संविधान को भी तार तार कर सकते है। इससे यह भी साबित हो गया है कि नस्लवाद और फासीवाद ने अब अपना चेहरा बदल लिया है। अब तो केंद्रीय मंत्री भी गालियां देने लगे है। अब भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले भाजपा नेता कहाँ गए?
शाहीन बाग जैसे प्रदर्शन और पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर चल रहे विरोध एवं समर्थन की रैलियों से यह कानून अब गांव-गांव तक चर्चा का विषय बन गया है ।लोगों में जिज्ञासा है कि इस कानून की ऐसी क्या आवश्यकता थी जो देश की मौलिक समस्याओं बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था, डूबती बैंकिंग व्यवस्था आदि को दरकिनार कर पूरे देश को केवल नागरिकता भारत-पाकिस्तान और हिंदू मुसलमान पर फोकस कर दिया गया।
लोग यह समझने में असमर्थ हैं इस कानून से आखिर कितने शरणार्थियों को लाभ पहुंचेगा जिसके लिए 133 करोड़ भारत के लोग आग में जलने के लिए मजबूर हैं। सरकारी स्तर पर जो आंकड़े सामने आए आए हैं वे यह बताते हैं कि धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर जो लोग इस कानून के लागू होते ही लाभ उठा सकते हैं उनकी संख्या 31313 है ।इन शरणार्थियों में 25 हजार 447 हिंदू 5807 सिख, 55 ईसाई दो बुद्धिस्ट तथा मात्र दो पारसी शामिल हैं । यानी केवल 31313 शरणार्थियों को लाभ पहुंचाने के लिए पूरे देश को पक्ष और विपक्ष में बांट दिया गया है और यह भावना स्थापित कर दी गई है कि मुसलमान को इस देश में अब द्वितीय स्तर पर ही रखा जा सकता है । ऐसा नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसके पहले मुसलमानों को देश की नागरिकता नहीं दी है। अभी ताजातरीन मामले में पाकिस्तानी पायलट अरशद सामी जिन्होंने भारत पर 65 के युद्ध में बम बरसाए थे ,के पाकिस्तानी बेटे अदनान सामी को जो मुसलमान भी हैं को भारत की नागरिकता प्रदान की गई ही गई बल्कि ताबड़तोड़ आज देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री से भी नवाज दिया गया है । अगर देश की भावना कानून के साथ बताई जाती है तो सवाल उठता है कि अदनान सामी को विशेष रुप से प्राथमिकता के आधार पर यह नागरिकता क्यों दी गई? और अगर सरकार के दृष्टि में हिंदू मुसलमान जैसा कोई भेद नहीं है तो कानून में एक शब्द “मुसलमानों को छोड़कर” क्यों लागू किया गया है यहीं से शंका और कुशंका का वातावरण बनना शुरू हुआ है । देश को यह जानना चाहिए कि समय-समय पर देश में नागरिकता प्रदान करने के अधिकारों को भी नीचे की नौकरशाही तक भेजा गया है । 2004 में 1965 एवं 1971 के युद्ध में विस्थापित हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के मामले में गुजरात एवं राजस्थान के छह कलेक्टरों को नागरिकता प्रदान करने के अधिकार दिए गए थे ।बाद में ये अधिकार 2005 तक और फिर 2006 तक बढ़ाये गये । इसका मतलब है कि नागरिकता देने ना देने के मामले में देश में कभी भी विवाद की स्थिति नहीं रही और वर्तमान कानून में अगर मुसलमानों को छोड़कर शब्द का प्रयोग न किया गया होता तो यह कानून भी देश ने स्वीकार कर लिया होता । एक तथ्य और ध्यान आकर्षित करता है कि 2014 से मोदी जी की इसी सरकार ने 2830 पाकिस्तानियों को 912 अफगानिस्तानियों को और 172 बांग्लादेशियों को भारत की नागरिकता प्रदान की है जिनमें हजारों मुसलमान है तब अचानक 2020 में मुसलमानों से इस नये व्यवहार के पीछे सरकार की क्या मंशा है यह तो देश जानना ही चाहेगा।
सरकारी अफसरों ने अलग-अलग समय पर यह बताया है कि नागरिकता संशोधन कानून का उद्देश्य उन शरणार्थियों के लिए एक एक ऐसा मैकेनिज्म तैयार करना है जो अन्यथा अवैध आब्रजन यानी “इल्लीगल इमीग्रेंट” कहलाते हैं जिनके पास ऐसे दस्तावेज नहीं होते जिससे वह भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकें । अब इस कानून के बाद उन्हें इल्लीगल इमीग्रेंट्स नहीं माना जाएगा एवं उनके दस्तावेजों की विस्तृत जांच किए बिना वह ना केवल भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे बल्कि नागरिकता प्राप्त करने के अधिकारी भी बन जाएंगे सबसे बड़ी बहस यही है कि जो आर्टिकल 14 में संविधान रेखांकित करता है वह यह कि भारत का कोई भी कानून धार्मिक जातिगत या भाषाई अथवा नस्ली आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं करेगा ना ही विशेष धार्मिक ग्रुपों को पसंद या नापसंद करेगा । केवल मुसलमानों को इस कानून के तहत इस सूची से बाहर रखने का उद्देश्य स्वतः आर्टिकल 14 के उद्देश्यों की अवहेलना करता है।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक एवं कांग्रेस विचार विभाग के अध्यक्ष हैं )