जुलाई 2014 में जनजातीय संगठनों का एक प्रतिनिधि मंडल मुझे कलेक्टर झाबुआ के कार्यालय में मिला और मुझे एक ज्ञापन सौंपा। उस ज्ञापन में लेख था कि दिनांक 9 अगस्त को झाबुआ जिले में अनेक स्थानों पर जनजातीय समुदाय के लोगो और कर्मचारियों द्वारा ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया जाता है और इसलिए उस दिन कलेक्टर द्वारा घोषित अवकाश दिया जाए। मुझे उनकी बात तर्कसंगत लगी। जिस जिले में कुल जनसंख्या के 87 प्रतिशत जनजातीय समुदाय रहता हो और वे किसी दिवस को बड़े स्तर पर मनाते हो तो यह उचित है कि उस दिवस को कलेक्टर अवकाश घोषित करे। परन्तु ऐसा करने में मेरे समक्ष दो मुख्य समस्याएं थी। पहली यह कि प्रतिवर्ष जनवरी माह में ही कलेक्टर द्वारा उस वर्ष के लिए निर्धारित तीन अवकाश दिवसों का आदेश जारी किया जाता है जो उस वर्ष 2014 के लिए मेरे पूर्व अधिकारी द्वारा जारी किया जा चूका था और कलेक्टर के रूप में मुझे चौथा अवकाश घोषित करने का अधिकार नहीं था। दूसरी समस्या यह थी कि ९ अगस्त को वास्तविक रूप से ‘विश्व आदिवासी दिवस’ कितने लोगों द्वारा किस स्तर पर मनाया जाता है इसका कोई दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध नहीं था। परन्तु चूँकि मांग तर्कसंगत थी और जनहित में भी थी, मैंने इस पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया।
मैंने अपर कलेक्टर झाबुआ की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसमे कुछ विषय विशेषज्ञ भी शामिल थे। इस समिति को आवश्यक शोध कर यह बताना था कि झाबुआ जिले में 9 अगस्त को जनजातीय समुदायों के लोग किस स्तर पर और कैसे मनाते है और क्या उस दिन अवकाश घोषित करना आवश्यक है। समिति ने लगभग एक सप्ताह में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमे यह पाया कि झाबुआ जिले में बड़े स्तर पर जनजातीय समुदायों के लोग 9 अगस्त को अनेक स्थानों पर एकत्रित होते है और सामूहिक रूप से ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाते है। समिति ने अनुशंषा की कि उस दिन को कलेक्टर अवकाश घोषित करना उचित होगा। इस प्रकार एक समस्या का निदान हो गया, अब इस बात के दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध थे कि 9 अगस्त को झाबुआ जिले में बड़े स्तर पर, अनेक जनजातीय समुदायों द्वारा ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया जाता है।
परन्तु दूसरी समस्या इतनी सरल नहीं थी। पूर्व से घोषित तीन में से किसी एक अवकाश को निरस्त कर 9 अगस्त को अवकाश घोषित करना था। जहाँ तक अधिकार की बात थी, कलेक्टर के रूप में ऐसा करना मेरे अधिकार क्षेत्र में था। परन्तु निकट भूतकाल में इस प्रकार पूर्व घोषित अवकाश को निरस्त कर अन्य नया अवकाश घोषित करने का कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं था। मैं पूर्णतः आश्वस्त था कि जिस जिले में 87 प्रतिशत जनजातीय समुदाय हो और वे किसी दिवस को उत्साह के साथ बड़े स्तर पर सामूहिक रूप से मनाते हो, ऐसे दिन अवकाश होना चाहिए, विशेषकर तब जब कलेक्टर द्वारा घोषित तीन में से कोई भी अवकाश सीधे तौर पर जनजातीय समुदाय से जुड़ा हुआ न हो। सामान्य पूछताछ के बाद और मेरी समझ के अनुसार तीन में से एक अवकाश जो उस जिले के लिए सबसे कम आवश्यक प्रतीत हुआ उसे निरस्त करते हुए मैंने 9 अगस्त 2014 को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में शासकीय अवकाश घोषित करने का आदेश जारी कर दिया। 9 अगस्त को अवकाश तो घोषित हो गया परन्तु उसके बाद समस्याओं का नया दौर शुरू हुआ।
आदेश जारी होने के दूसरे दिन सुबह जब मैं कलेक्टर कार्यालय पंहुचा तो सौ से अधिक लोग कलेक्टर परिसर में धरने पर बैठे थे। पूछने पर पता चला कि वे लोग हिन्दू जागरण मंच से थे और शीतला सप्तमी के अवकाश को निरस्त कर ‘विश्व आदिवासी दिवस’ को अवकाश घोषित करने के आदेश के विरुद्ध धरने पर बैठे थे। उनकी मांग थी कि आदेश को वापस लिया जाये और जब तक आदेश वापस नहीं लिया जाता वे धरना जारी रखेंगे।
मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया और ऊपर वर्णित तर्क दिए। परन्तु जैसा कि आम तौर पर देखने में आता है, धार्मिक मामलों में तर्क का स्थान सिमित होता है, इस मामले में भी वही हुआ और धरना जारी रहा। श्याम तक बात ऊपर तक पहुँच गयी। प्रदेश के प्रशासनिक मुखिया ने मुझे फ़ोन पर कठोर शब्दों में डांट लगायी, ऐसी भारी चूक के लिए स्पष्टीकरण चाहा और आदेश को निरस्त करने की सलाह दी। वे पूरी तरह सही थे। और मैं भी यह जानता था कि मेरा निर्णय सरकारों की तत्कालीन समझ और ‘स्टैंड’ के अनुकूल नहीं था। जब वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा यह निर्णय लिया गया कि 9 अगस्त को पुरे विश्व में ‘इंटरनेशनल डे ऑफ़ वर्ल्डस इंडिजेनस पीपल्स’ मनाया जायेगा तभी से भारत सरकार असमंजस की स्थिति में रही है। सरकारों द्वारा यह स्टैंड लिया गया कि भारत में रहने वाले सभी लोग ‘इंडिजेनस’ है और इसलिए भारत में कोइ विशेष समुदाय ‘इंडिजेनस’ नहीं है। इसका परिणाम यह रहा कि सरकारें प्रायः इस विषय को टालने की भूमिका में रही और भारत में, विशेषकर मध्य प्रदेश में ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाने से बचती नज़र आयी। और इस पृष्ठभूमि में एक जिले के कलेक्टर द्वारा उसी दिवस को शासकीय अवकाश घोषित किया जाना सरकार की मंशा के विरुद्ध कार्य करने की श्रेणी में माना जाता है तो यह गलत नहीं होगा।
बहरहाल, कुछ दिनों के ‘नैतिक असमंजस’ (मोरल डिलेमा) के बाद मैंने आदेश को यथावत रखने का निर्णय लिया। कुछ दिनों बाद धरना समाप्त हुआ और प्रशासकीय डांट की पुनरार्वृत्ति नहीं हुयी। उस वर्ष झाबुआ जिले में, 9 अगस्त को बड़े स्तर पर, अधिक हर्षोउल्लास के साथ ‘विश्व आदिवासी दिवस’ मनाया गया।
अगले वर्ष कई जनजातीय बहुल जिलों में कलेक्टर को अनेक ज्ञापन सौंपे गए और कई जिलों में 9 अगस्त को शासकीय अवकाश घोषित किया गया। रोचक तथ्य यह है कि कुछ ही वर्षो बाद मुझे मुख्यमंत्री के सचिवालय में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ और उसी वर्ष मध्य प्रदेश शाशन द्वारा 9 अगस्त को सम्पूर्ण प्रदेश में शासकीय अवकाश घोषित किया गया और आज तक निरंतर किया जा रहा है।
यह लम्बी कहानी बताने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण है। इस कहानी में आज के ‘विश्व आदिवासी दिवस’ को मनाने के निर्णय, तरीके, उद्देश्य, राजनैतिक हित, आदि. पर जो असमंजस है उसके मूल देखने को मिलते है। इसे कुछ प्रश्नों के माध्यम से समझने का प्रयास करते है। भारत की सरकारों ने ऐसा मत क्यों रखा कि भारत में कोई ‘इंडिजेनस’ लोग नहीं है? और यदि ऐसा मत रखा तो फिर आज इतनी धूम धाम से शासकीय खर्चे पर इसे क्यों मनाया जा रहा है? राजनैतिक पक्षों के बिच इस पर दावा ठोकने की होड़ क्यों मची है? जिस तरीके से यह दिवस मनाया जा रहा है क्या इसे मनाने का यह सही तरीका है? यदि नहीं, तो इस दिवस के हमारे लिए क्या मायने है और हमे किस तरह इसे मनाना चाहिए? आईये इन प्रश्नो के संक्षिप्त उत्तर ढूंढने का प्रयास करते है।
चाहे किसी भी राजनैतिक पार्टी की सरकार हो, उनकी समझ हमेशा से ही इस देश के तथाकथित ‘बुद्धिजिविओं’ की समझ से निर्धारित होती रही है। यह बात कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह तथाकथित बुद्धिजीवी समाज के विशेष वर्गों से आते है। और इन वर्गों की विचारधारा ने भारत के मूलनिवासियों ‘इंडिजेनस’ लोगों को हमेशा उनकी उस पहचान से दूर रखने का प्रयास किया है। इसलिए यह स्वाभाविक था कि सरकारें भारत में ‘इंडिजेनस’ लोग नहीं होने का स्टैंड लेती रही। परन्तु सोशल मीडिया के आने से और भारत के इंडिजेनस लोगों में जागरूकता बढ़ने से कुछ ही वर्षो में विशेषकर जनजातीय समुदायों ने इस दिवस को मनाना शुरू किया। इसी जागरूकता की कड़ी में इंडिजेनस समुदाय, विशेषकर जनजातीय समुदाय,अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए और अनेक क्षेत्रों में उसने आंदोलनो का स्वरुप प्राप्त किया। पत्थलगडि जैसे जन आंदोलनों ने जनजातीय अधिकारों के विषय को फिर से चर्चा के केंद्र में लाया। इससे एक ओर इस समस्या के समाधान की आवश्यकता महसूस हुयी और दूसरी और राजनैतिक पक्षों को इसमें चुनावी फायदे भी नजर आने लगे। और शीग्र ही, राजनैतिक-चुनावी हितों को साधने के उद्देश्य से सरकारों ने 9 अगस्त को, चुनावी रणनीति के तहत न केवल मानना शुरू किया बल्कि मनाना भी शुरू कर दिया। और आज आप जो भव्य स्वरुप के सरकारी आयोजन देख रहे है वे इसी रणनीति का हिस्सा है। चुनावी रणनीति के तहत ही सही, सरकारों ने इस बात को अपरोक्ष रूप से स्वीकार तो किया भारत में ‘इंडिजेनस’ लोग रहते है।
परन्तु इस दिवस पर दावा ठोकने और उसके माध्यम से चुनावी लाभ प्राप्त करने की इस होड़ में ‘इंटरनेशनल डे फॉर वर्ल्डस इंडिजेनस पीपल्स’ को मनाने के मुख्य उद्देश्य कहीं खो गए। सही मायनो में देखा जाये तो हमारे देश के ‘इंडिजेनस’ लोगों को मानवीय मूल्यों की हमारी ऐतिहासिक परंपरा को जीवित रखने का श्रेय जाता है। अतः यह दिवस उनके स्वभाग्यनिर्णय के अधिकार को संरक्षित करने के साथ साथ प्रकृति के साथ उनके सहजीवन से सिखने का दिवस भी है। यह दिवस इंडिजेनस समुदायों की उन जिवंत परम्पराओं से सीखने और उन्हें बढ़ावा देने का अवसर है जो सामाजिक और स्त्री-पुरुष समानता के मानवीय मूल्यों को संजोये हुए है। प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित कर जीवन जीने की कला इंडिजेनस लोगो से, विशेषकर जनजातीय समुदाओं से सिखने का यह अवसर है। जल-जंगल-जमीन जिन पर इंडिजेनस समुदायों की आजीविका और जीवन निर्भर करता है उन्हें संरक्षित करते हुए उनपर उनके अधिकारों को स्वीकार करने का दिवस है। यस दिवस हमारे इंडिजेनस युआओं के सर्वांगीण विकास के लिए संकल्प लेने और उस दिशा में निरंतर कार्य करने का अवसर है। यह दिवस सही मायनो में इंडिजेनस लोगों की मानवीय गरिमा का उत्सव मनाने का अवसर है। सभी को ‘इंटरनेशनल डे फॉर वर्ल्डस इंडिजेनस पीपल्स’ की अनेको शुभकामनाएं।
( समान शेखर पूर्व IAS अधिकारी हैं और वर्तमान में सामाजिक और शैक्षणिक मुद्दों पर कार्य करते है )